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भूखा I.P.S
वो गया देहरादून
बो कर माँ पापा के सीने में
उम्मीदों के बीज,
की वो बनेगा एक दिन
I.P.S ऑफिसर।
करनपुर की गलियों में तलाशने लगा
एक अच्छा सा इंस्टिट्यूट,
फीस पूछी
तो कहीं बीस हज़ार
तो कहीं पचास।
और उसकी जेब में
बस दो हज़ार रूपए।
तो उसे लगा
उसकी औकात नहीं
I.P.S बनने की।
माँ पापा गरीब थे
उन्हें क्या दोष देता।
बस पूछता भगवान से
की कोई पैदा होते ही बन जाता है
करोड़ों की जायदाद का वारिस,
तो कोई तरसता है
दो वक़्त की रोटी के लिए.
महीना गुज़रा एक कमरे की
चारदीवारी में।
लगता I.P.S को डाला गया हो
जेल के अंदर।
हो चुके थे
जेब,किस्मत और पेट
तीनो खाली।
बज़ार में जाकर ताकता रहता
ठेलियों को.
अपनी और खींचा करते वो छोले कुलचे
जिन्हे वो कभी खाना पसंद नहीं करता था.
फिर थक हार कर वो I.P.S
करने लगा एक ढाबे में काम.
अब वो भूखा नहीं रहता
और महीने में उसे मिल जाती है पगार।
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