ना फ़ोन था

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ना फ़ोन था न टी.वी,
बस घर से निकल जाते थे,
गावं में होती थी जगह एक खेलने की,
सब दोस्त वहां मिल जाते थे.
कपड़े की बॉल से,
कभी पिटटू  खेला करते थे,
दोस्त को चिढ़ा कर,
मुस्कुराहट चेहरों में भरते थे.
कभी वो छुपम छुपाई 
तो कभी राजा बजीर,
कभी राज खेला करते थे 
मिट्टी में खींच कर लकीर।
कभी कंचे 
तो कभी गारे,
बस दिन गुज़रता था 
इन सबके सहारे।
बच्चों में देखता हूँ 
अपने बचपन की परछाई,
कानो में सुनाई देता है 
मौसम पायी मौसम पायी 
सौ  रूपये की घडी चुराई,




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